धर्म की व्यापकता के दृष्टिकोण से संप्रदायों की संस्थापना और अनुयायीजनों की वृद्धि के फलस्वरूप पंद्रहवीं शताब्दी का समय भक्तिकाल कहलाया। इस काल के कुछ संप्रदायों ने जातिगत रूप भी धारण किया। धन्नाजी महाराज ने अपने धन्नावंशीय संप्रदाय के अनुयायियों को अपना जातीय रूप कायम रखने की छूट दी। धन्नावंशी समाज की ही भांति बाद के संप्रदायों में बिश्नोई, जसनाथी, निरंजनी जैसे अनेक संप्रदायों में भी जातिगत रूप मौजूद रहा। यह परंपरा बाद में अन्य संप्रदायों ने भी ग्रहण की।
धन्नावंशी संप्रदाय की स्थापना के लिए धन्नाजी को उनके गुरु महाराज श्री रामानंदजी ने आग्रहपूर्वक आज्ञा प्रदान की। स्वामी रामानंदजी चाहते थे कि धन्नाजी अपनी जाति में वैष्णवता का संप्रसार करे। धन्नाजी ने अपने गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य किया और धन्नावंशी समाज की स्थापना के निमित्त उत्तरी राजस्थान नागौर क्षेत्र के उन गांवों का चयन किया जहां तत्कालीन उदार शासक मोहिलों (चौहान राजपूत) का राज्य था। संवत 1532 के चैत्र मास की रामनवमी के दिन उन्होंने स्वजातीय कालेरा नख के एक परिवार को शालग्राम शिला प्रदान कर धन्नावंशी समाज की स्थापना की। उनके हाथों प्रदान किया, वह पवित्र शालग्राम आज भी फिरवांसी के प्राचीन शालग्रामजी मंदिर में ठाकुर विग्रह के रूप में सुपूजित है। इसके बाद कई वर्षों तक बहुत सारे परिवार धन्नावंशी समाज से जुड़े और भक्ति का मार्ग अपनाया।
पंथ प्रवर्तक श्री धन्नाजी महाराज
धन्नावंशी संप्रदाय के पंथ प्रवर्तक श्री धन्नाजी महाराज राजस्थान में भक्ति चेतना के अनूठे पर्याय थे। उनका जन्म अनुमानत वि सं 1472 (सन 1415) में राजस्थान के धुंवा कल्ला गांव (टोंक जिला) में हुवा था। बाल्यकाल की भक्ति के कारण उनका हर आचरण वैष्णवता से संसिक्त था। अपने विलक्षण व्यक्तित्व के बल पर उन्होंने मध्ययुगीन आध्यात्मिक क्रांतिचेता श्री रामानंदाचार्य को अत्यधिक प्रभावित किया। श्री रामानंदाचार्य के बारह शिष्यों में (अनंतानंद, भावानंद,सुरसुरानंद, पीपा, सेन, धन्ना , नरहर्यानंद,सुखानंद, कबीर , रैदास, सुरसरी , पदमावती) मे से प्रमुख शिष्य थे। अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण का आधार बना धनावंशी संप्रदाय । अगर धन्नाजी रामानंदजी का शिष्यत्व ग्रहण करने न जाते तो धनावंशी संप्रदाय कभी अस्तित्व में नहीं आता। उन्होंने ही धन्नाजी की संप्रदाय संस्थापन के लिए प्रेरित किया और आज लगभग साढ़े पांच सौ वर्षों से यह संप्रदाय अपने स्वरूप में विद्यमान है। धन्नावंशी संप्रदाय को इसकी स्थापना काल से ही राजाओं जागीरदारों से मान प्रतिष्ठा तथा सम्मान अनेक रूपों में प्राप्त हुआ।
श्री धन्नाजी की गुरु परंपरा
श्री रामानंदजी के रामार्चन पद्धति में अपनी गुरु परंपरा इस प्रकार दर्शायी है
(1) श्री रामचन्द्रजी
(2) श्री सीताजी
(3) श्री विष्वक्सेनजी
(4) श्री शठकोपजी
(5) श्री नाथ मुनिजी
(6) श्री पुण्डरीकांक्ष जी
(7) श्री राममिश्रजी
(S) श्री यामुनाचार्यजी
(9) श्री महापूर्णाचार्यजी
(10) श्री रामानुजाचार्यजी
(11) श्री कुरुकेशजी
(12) श्री माधवाचार्यजी
(13) श्री वोपदेवाचार्यजी
(14) श्री देवाधिपजी
(15) श्री पुरुषोत्तमजी
(16) श्री गंगाधरजी
(17) श्री रामेश्वरजी
(18) श्री द्वारानंदजी
(19) श्री देवानंदजी
(20) श्री श्रियानंदजी
(21) श्री हरियानंदजी
(22) श्री राघवानंदजी
(23) श्री रामानंदजी और रामानंदजी के शिष्य
(24) श्री धन्नाजी महाराज
*श्री धन्नाजी महाराज की गुरू परम्परा*
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*श्रीनारायण प्रथम गुरु तिनके शिष्य श्रीदेवी।*
*तिनके विष्वकसेनजी शिष्य भये हरिसेव ।।*
*तिनके श्रीशठकोप मुनि जगत उद्धारण हेतु।*
*प्रगट भये अवतार ले भवसागर के सेतु ।।*
*तिनके शिष्य श्रीनाथ मुनि प्रगट भये जग मांहि ।*
*राम मंत्र उपदेश करि मुक्त किए सब कांहि ।।*
*भये पुण्डरीकाक्ष पुनि तासु भजन की सींव ।*
*राम मिश्र तिनके भये मुक्त किए बहु जीव ।।*
*यामुन मुनि तिनके भये जीवन को गति दीन्ह ।*
*पूर्ण मुनि तिनके भये शिष्य भजन रसलीन ।।*
*श्रीरामानुज तिनके भये सो शेषा अवतार ।*
*राम मंत्र उपदेश करि किए सकल भवपार ।।*
*पुनि तिनके गोविंद भे भट्टारक पुनि जान।*
*तिनके श्री वेदांतिजी सकल गुणन की खान ।।*
*तिनके श्री कलिजीत भये तिनके कृष्णाचार्य ।*
*रहस्य अष्टदश प्रकट किए कलि मंह पुनि लोकार्य ।।*
*तिनके शिष्य शैलेषजी वरबरमुनि पुनि शेष ।*
*अष्ट गादी थापन कर दीन्हो भल उपदेश ।।*
*आचारी तिनके भये पुरुषोत्तम यह नाम ।*
*जो कोऊ शरणागत भये तिनको दियो हरि नाम ।।*
*देवाचारज शिष्य भये तिनके भजन प्रमान।*
*शिष्यन को हरि भक्ति दे मुक्त दिए करि दान ।।*
*हरियाचारज शिष्य भये तिनके सब जग जान ।*
*भये राघवानंद पुनि तिनके वे थे भजन सुजान ।।*
*श्री रघुवर अवतार ले भल प्रगटे रामानंद ।*
*कलिमंह जे मतिमंद अति मुक्त किए नर वृन्द ।।*
*तिनके शिष्य द्वादश भये द्वादश भानू समान ।*
*निज विज्ञान प्रकाश करि नाश कियो अज्ञान ।।*
*प्रथम अनंतानंद भे सुखानंद सुखधाम ।*
*भये सुरसुरानंद पुनि भावानंद सुनाम ।।*
*अरू नरहरियानंद पुनि सैन भक्त रैदासु।*
*पीपा भये कबीर पुनि धना नाम है जासु ।।*
*रानी भयी पदमावती भइ सुरसरि इक वाम ।*
*स्वामी रामानंद के शिष्यन के ये नाम ।।*
*करि विचार तिन बांधियो राम भजन दृढ सेतु ।*
*भवसागर दुस्तर अगम जीव उधारन हेतु ।।*
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----- *भगत धन्नाजी री स्तुति* ------
धनाजी म्हारा भगतां रा सिरमौर। आप भगति रो अमर च्यानणो,उजाळ्यो च्यारूं ओर।।
सेवा पूजा और बंदगी जिणरो नीं कोई छोर। सैंदै प्रगट्या भगत मन रीझ्या आप ही नंदकिशोर।।
आतमवासी उभा होग्या हरख्या हिवड़ै रा मोर । गाय चराई खेत रुखाळ्यो संशय संको न चोर।।
बीज बांट साधां नै पोख्या होकर आप विभोर । बिन बाह्यां ही इसड़ो निपज्यो ज्यांरो छेह न छोर।।
धनावंश री जोत जगाई सिंवरयो सांवरो चितचोर। जात कड़ूम्बै जाग जगाई राख्यो भगति रो जोर।।
आप करयो उपदेस भलेरो असंग सूं बांधो डोर। छोड जगत जंजाळ वैरागी लिव राखो ठाकुर ओर।।
चेतन चेत करो जग मांहि महिमा भगत री जोर। धनावंशी जो धन्य धन्य है उणरै गुरू नहीं और।।
धनाजी म्हारा भगतां रा सिरमौर।।
--- *धनाजी महाराज की आरती*---
धनाजी थांरी आरती गावां जी।। भगतांजी थांरी आरती गावां जी।।
आप बधायो मान भगति रो भगतां सिरै कैवाया जी। ब्राह्मण दिन्हो एक सिला टुक आप जिमाया जी।।
भगति रै प्रताप धनोजी प्रभु संग पाया जी। हाजर रहता-हेलो देंतां सब काम भोळाया जी।।
आन देव री राखै न आसा भजै ठाकुर सांसो सासा। वैराग्यां री रीत बै जाणै भगत बणाया जी।।
सिंवरो राम साधपण सेवो उपदेस द्रिढाया जी। खेती भगति साथ करो थे धनावंश उपाया जी।।
चित्त में थांनै राखै चेतन वैराग धरावो जी । धनावंश पर म्हैर करो थांरा जस गांवां जी।।
धनाजी थांरी आरती गावां जी। भगतां जी थांरी आरती गावां जी ।।
धना जी के वैराग्य जीवन की इक्कीस बातें:
(1) भगवान धरणीधर की ही सर्वत्र लीला है। वे ही हमारे मीत हैं।
(2) अतिथि सेवा में दूजा भाव मत घरो।
(3) हर भूखे प्राणी को भोजन देवो, उसकी पोखना करो।
(4) किसी जीव को मत मारो।
(5) ठाकुरजी का ध्यान ही संध्या वंदन है, दोनों वक्त संध्या वंदन करो, यह वैरागी का धर्म है।
(6) साच का साफ और हाथ का साथ करो।
(7) सवेरे का धूप, ध्यान नहाकर करो तो सायंकाल का हाथ-पैर
(8) वैरागी का दर्शन कल्याणकारी है, वैरागी को मान दो।
(9) हरिकीर्तन ही पूंजी है, जितनी इकट्ठी कर सको, करो।
(10) ठाकुरजी के कल्याणप्रद दर्शन के बाद ही सारे कार्य करो।
(11) धर्मात्मा गुरु और भगवान में समान भाव रखो। साध को भगवान कर पूजो।
(12) धरणीधर की छाप ही वैरागी बनाती है। छाप, तिलक, कंठीमाला
चोटी ही वैरागी का आभूषण है।
(13) भगवान का ही नशा करें, अन्य नशा न करें।
(14) चोरी- जारी का गुनाह, बड़ा पाप ।
(15) मोटा न्याय भगवान की थळी अर्थात भगवान के मंदिर की चौखट में बड़ा कोई न्याय स्थल नहीं है।
(16) पीपल में विष्णु का वासा अर्थात पीपल लगाएं तथा पीपल का पूजन करें।
(17) हलोतिये चीड़ी-कीड़ी का भाग अर्थात फसल में चिड़ियों एवं चोटियों का भाग होता है।
(18) अमावस-पून्यू थेऊ, अमावस्या पूर्णिमा को थेऊ रखना चाहिए।
(19) ग्यारस का व्रत राखणा अर्थात एकादशी का व्रत रखें।
(20) संतोषी है सो ई स्यामी यानी वैरागी को हमेशा संतोष रखना चाहिए।
(21) वैरागी के शोक नाहीं अर्थात वैष्णव को किसी के देवलोक गमन पर शोक नहीं रखना चाहिए। ध्यान रखें कि वह प्राणी भगवदचरणों में निवास करने गया है।