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गारबदेसर-

 

गारबदेसर- बैराग मण्डल और महन्त

गाव गारवदेशर के सुप्रसिद्ध महंत साधुओं की गद्दी बड़ी पुरानी एवं सम्मानीय है। यह धन्नावंशी वैरानियों के विस्तृत क्षेत्र में पूजनीक हैं। गद्दी के महंत / धनावंशी वैरागियों में तो शिरोमणि हैं ही, पर इनकी गणना पहुंचे हुए पारंगत साधुओं में भी होती रही है। | इस गद्दी की स्थापना का पता बहुत पुराना है।

"स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी ( सं 1073- 1194) के श्री सम्प्रदाय में ये शिरोमणि संत होते हुए विष्णु या नारायण की उपासना करते हैं। इसमें अनेक  शाखाएँ और अच्छे-अच्छे साधु हुए हैं, जिनकी शिष्य परम्परा, भक्ति के सम्यक्य प्रसार हेतु देश में | बराबर फैलती हुई जनता को भक्ति मार्ग की ओर आकर्षित करती रही है। विक्रम की 14वीं शताब्दी के अन्त में काशी के आचार्य श्री राघवानन्द जी इस सम्प्रदाय के प्रधान थे, जिनकी गद्दी के शिष्य भारत के प्रसिद्ध पर्यटक श्री रामानंद जी हुए। वे उपासना के  क्षेत्र में किसी प्रकार का लोकिक प्रतिबन्ध (भेदभाव) नहीं मानते थे। उन्होंने विष्णु के अनेक अन्य रूपों में से केवल राम-रूप" को ही लोक के लिए अधिक कल्याणकारी मानकर (सं0 1575-80 में) एक सबल सम्प्रदाय का संगठन किया था। उसे रामावत सम्प्रदाय कहते हैं। यह गारबदेशर के महंतों की गद्दी घनावंशी है। मगर 18वीं शताब्दी में गाँव गारबदेशर में इसका समृद्धावस्था में उल्लेख मिलता हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में स्वामी मानदास के शिष्य हरिदास का बीकानेर राज्य तक सम्मान था। तत्कालीन जन-हितार्थ दो कुए और एक तालाब बनवाकर गांव को दिए थे और इनकी जमीन में ही गारबदेशर का आधूना (पश्चिमी) बास है। कुओ करमाणों और नैडकी तलाई भी इन्हीं की जमीन में हैं। उसमें चारों बुर्जो वाला भगवान का बड़ा मन्दिर और रहने के लिए आज भी अनेक स्थान (भगनावस्था में) दिखाई देते हैं। महंत की जमीन में बसने वाले गुवाडे (घर, राजपूतों और ब्राह्मणों के) महाराज सूरत सिंह जी के ताम्र पत्र (स01852) के अनुसार जकात, मापो, मुकातो गांव मुजब देते थे। यहां महत की जमीन बीघा तीन सौ नौ सौ और सात सो पचास- कुल 2025 बीघा थी, जो अब तक उन्हीं के मंदिर पीछे, शिष्य भोगते हैं। स्वामी हरिदास के देहावसान के स्थान पर एक मकान है और चरण पादुकाएँ। महंत हरिदास वैरागियों में दादा नाम से पुकारे जाते थे। बालकों का झडूला उनके उसी भवन उतरता है और विवाह-शादी के समय लोग दर्शनार्थ जाते हैं। श्री हरिदास महंत तकड़बंध एवं राजयी की भाँति जमीन-जायदाद वाले थे। बीकानेर के महाराजा उनसे मदद लिया करते थे।

एक बार गांव कालू के गोदारा जाटों ने मेला (धार्मिक आयोजन किया था। इसलिए गारबदेशर के महंत से एक बड़ा तिरपाल माँगकर लाये। दुर्भाग्य से वह तिरपाल कालू में ही जल गया। तब जाट लोग भयभीत हुए। महंत के पास तिरपाल की बात बताने गये और क्षमा याचना मांगी, महंत ने माफ कर दिया। किन्तु कालू के जाटों ने तिरपाल के एवज में जमीन बीघा सात सौ पचास (खेत 5 की) महंत को अर्पित कर दी, जिसका तामापत्र (सं0 1852) में पूरा उल्लेख है।

महंत हरिदास का शिष्य अमरदास और अमरदास के शिष्य बद्रीदास हुए। बद्रीदास को भी जमीन बाबत लगान आदि का ताम्रपत्र बीकानेर महाराजा रतनसिंह तथा सरदारसिंह ने मोहता लीलाधर से लिखवाकर (सं 1900 में) दिया था। बद्रीदास के शिष्य सेवादास ने (वि० सं० 1974 में) गांव कालू आकर अपना बास बसाया था और मंदिर तथा कुए की स्थापना की थी। सेवादास के शिष्य मेघदास और मालूराम हुए। मालूराम तो छोटी अवस्था में ही चले गये। लेकिन मेघदास जी ने अपने ठाकुर द्वारे की अच्छी व्यवस्था बनाये रखी। अपने गुरू की भाँति समाज की मर्यादा हेतु दूर-दूर के गांवों तक सेवकों के विशेष आयोजन अवसरों पर जाकर सम्मिलित होते और गुरूमंत्र देकर दक्षिणा प्राप्त करते थे। ये वहाँ रात्रि जागरण भी करवाया करते और नाड़ी देखकर दवा-दारू भी दिया करते थे। इनके साथ अपने बहुत से आदमी भी जाया करते थे। इनके आगे राजा-महाराजाओं की भाँति कई व्यक्ति तुरी बजाते हुए चलते थे। ये वहाँ जाकर उतरते तब उस घर का मुख्य आयोजन आरम्भ होता था। उस घर में इन्हीं के द्वारा सारा लेन-देन और शिक्षा-उपदेश हुआ करता था। ऐसी ही सामाजिक प्रथा-परम्परा प्रचलित थीं, जो आज के युग में सिसकती-श्वास भर रही है।

गारबदेशर के महंत जब कालू आकर बसे, तब वहाँ से वैरागियों के करीब बीस घर इनके साथ आकर बसे थे। इन्होंने ठिकाने से कई शर्तों की स्वीकृति ले ली थी। जैसे, कालू मे इनके अपने मंदिर के आगे डफ, डांडिया (घीदड़) नृत्य और रास-रभत के खेल बीसों वर्ष तक होते रहे।

मेघदास जी के शिष्य श्री विष्णुदास महन्त अच्छी सेवा-पूजा के अलावा रामायण पाठी एवं आदर्श भजनीक हुए। वेसे तो महन्त श्री सेवादास जी ने कालू में आकर अपना कूआ, मंदिर आदि बनवा लिये थे। किन्तु वे गारबदेशर से आधाचार रखते हुए कालू रहा करते। खेती, पशुओं और लेन-देन की आय से जितना अधिक जोड़तें (संचय करते), उतना ही द्रव्य, दान-धर्म के कार्यों में व्यय कर दिया करते थे। इसके बाद मेघदास जी कालू के मंदिर में ही रहे और श्वांस छोड़ने पर ही भक्तों ने इनके पार्थिव शरीर को गारबदेशर ले जाकर दाह-संस्कार किया था। इस गद्दी के महंत श्री विष्णुदास अब नहीं रहे। आपने अपने कूए की जमीन और खेली, कोठों के पत्थर-चोकों से बालिका विद्यालय भवन कालू बनवाने में (सन् 1975 में) अपनो पूर्ण सहयोग प्रदान किया है। इन्होने अपने मंदिर के कड़ाह टोकणा, परात-थालियां आदि बर्तन बिरादरी पंचायत को दे दिये हैं। क्योंकि ये एक जगह नहीं रहते और रमते-राम की तरह दूर-दूर की यात्रा कर आया करते थे। तब बिरादरी के विवाहादि के कार्यों में सुविधाएँ बनी रहती है। मंदिर की साविधि-विधान पूजना होती है और गाँव के लोग ठाकुर जी के दर्शनों से पूर्ण लाभान्वित होते रहते हैं।

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