
भक्त धन्नाजी महाराज के भक्ति पद
भक्त धन्ना जी, संत परंपरा के एक प्रमुख भक्त, अपने निष्कपट एवं अनन्य प्रेम के लिए विख्यात हैं। साधारण कृषक होते हुए भी, उन्होंने अपनी अटूट भक्ति द्वारा भगवान को प्रत्यक्ष दर्शन देने के लिए बाध्य कर दिया। उनके भक्ति पद यह प्रतिपादित करते हैं कि ईश्वर-प्राप्ति के लिए बा ह्य आडंबर नहीं, अपितु निर्मल हृदय और सत्यनिष्ठ प्रेम ही पर्याप्त है। प्रस्तुत है भक्त धन्ना जी का भक्ति पद।

(1)
रे चित ! च्यंतसि दीनदयालहि, हरि बिन और न कोई।
जेहि ध्यावे ब्रह्मण्ड खण्ड लो, करता करे सो होई ।।
जिन्हि जननी के उदर उदक थे, पिण्ड कीयो दस द्वारा। दियो आधार अगिनि मुख राखे, ऐसा खसम हमारा ।।
कूर्मी अण्ड धरे जल अंतरि, खीर पंक तहं नाहीं।
पूरन परमानंद पयोधर, चित चिंतित तिहि ठांई ।।
पाहन कीट गोपि सबहिन थें, मारग कत हूं नाहीं।
कहे धनौ ताका हरि पूरिक, तूं कांई जीव डराहीं ।।
(गुरु ग्रंथ साहब में यह पद थोड़े फर्क से है।)
(2)
आरती
गोपाल तेरा आरता।
जो जन तेरी भगति करता, जिनके काज संवारता।
दाल सीधा मांगो घीव, हमारा खुशी करो नित जीव।
पनही छाजन छीका मांगु, नाज मांगू सत सीका।
गऊ भैंस मांगो लहरी, इक ताजनि तुरी चंगेरी।
घर की गृही नारि चंगी, अन धना इव मांगी।
अवगति बेहद तेरी आरती, हृदय में प्रगट्या न जाई ।।
(गुरु ग्रंथ साहब में यह पद थोड़े फर्क से है।)

(3)
जे उधरे जिनि राम कहे, तिनके दुख दारन आप कहे।
जे उधरे ऊधौ, नारद नांमा, अंबरीक, प्रहलाद सुदांमा ।।
उधरे सिब सनकादिक, सनक, सनंदन चरन परापति।
दास धनां हरि के गुण गावे, गुर परसादि परम पद पावै ।।
(ग्रंथांक 496 के अनुसार)


(4)
ना जानौं राम कैसा जोगी, अनंत गुफा मधुसूदन भोगी ।। खीर, खांड घ्रित अंमृत भोजन, साधनि न्यूंत जिमाऊं ।
यह कुटि छांडौ और निवासो, बहुरि न या कुटि आऊं ।। आवत जात बहुत से कीयै इहां ई रह्या न होइ ।
भगत धना जाट सेवग तेरा, हंस चाल्या कुटि रोई ।।
(ग्रंथांक 561 के अनुसार)
(5)
हरि हरि नित सुमरि ऊबरिसी हरि हूं, कांई रे जीहां हरि न कहे।
वाऊवा मरण सराणै बैठी, वासै खुरे त्रोड़तो वहै ।।
निस दिन नाम जपै नारायण, झाले साच पड़े मम झूठि।
दोखी अंत आतम न देखै, पान्ही चढहि जरा तौ पूठि ।।
प्राणियां नांम सुमिर, पुरषोतम, अंनि विषय परहरे आल।
पग सों पग त्रोड़तो न पेखे, क्रम क्रम जाल नाखतो काल ।।
प्रिसण मरण हरि समरथ पालिस्यै, मेल्हे मा चित सूध मना।
धरि हरि चेत समरि धरणीधर, धरणीधरि ऊबरिसी धना ।।
(प्राचीन राजस्थानी गीत)


(6)
हरि गुण गाइ रे हरि गुण गाड़, औरे छांडि सबै चतुराई ।। टेक ॥
चरण गंग गहि नीर न्हवाऊं, पीतांबर क्यूं सोभै तास ।
चंदणि किसै करूं हरि लेपण, जाके अंग अनूपम बास ।।
अगर चंदन घसि धूप खिड़ाण, कौण बास मनि राम रली।
पत्री पहप किसै बनि आण, जाके भार अठारह रोमावली ।।
पूजा भगति किसी भूल माणै, जाके सनक सनंदन भगत सुकादि ।
सेस सहंस मुख नांव अराधै, पवन पूज जाकै ब्रह्मादि।।
जाके नारद निरति नटारंभ संकर, आप अपछरा तोड़ै ताल। अगणित महिमा राम तुम्हारी, मैं गुण का जाणूं गोपाल ।।
अविगत अगम विषम कठिनाई, कहि कहि कहूंक लीयौ जाइ।
कहै धनौ अरथ परमारथ, जिनि पायौ तिनि सहज सुभाइ ।।
(ग्रंथांक 496 के अनुसार)

(7)
भ्रमत फिरत बहु जनम भुलाने, तनु मनु धनु नहीं धीरे। लाल विखु काम लुबध राता, मनि बिसरे प्रभ हीरे ।।
बिखु फल मीठ लगे मन बउरे, चार विचार न जानिआ ।
गुन ते प्रीति बढी अन भांति, जनम मरन फिरि तनिआ ।। 1 ।।
जुगति जानि नहिं रिदै निवासी, जलत जाल जम फंद परे।
बिखु फल संचि भरे मन ऐसे, परम पुरख प्रभ मन बिसरे ।। 2 ।।
गिआन प्रवेसु गुरहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एक मए ।
प्रेम भगति मानी सुखी जानिआ, त्रिपति अघाने मुकति भए ।।३।।
जोति समाइ समानी जाकै, अछली प्रभु पहिचानिआ।
धनै धनु पाइआ धरणीधरू, मिलि जन संत समानिआ ।। 4।।
(मूलपाठ-गुरुग्रंथ साहब)
(8)
गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लीणा।
आढ दाम को छीपरो, होइओ लाखीणा ।। रहाउ ।।
बुनना तनना तिआगि कै, प्रीति चरन कबीरा।
नीचा कुला जोलाहरा, भइओ गुनीय गहीरा ।। 1 ।।
रविदास ढुवंता ढोर नीति, तिन्हि तिआगी माइआ।
परगटु होआ साथ संगी, हरि दरसनु पाइआ ।। 211
सैनु नाई बुतकारीआ, ओहु घरि घरि सुनिआ।
हिरदै वसिआ पारब्रह्यु, भगता महि गनिआ ।। 3 ।।
इहि विधि सुनि कै जाटरो, उठि भगती लागा।
मिले प्रतखि गुसाईआ, धंना बड़भागा ।। 4।।
(मूलपाठ- गुरुग्रंथ साहब)


(9)
हर हर हर हर हर हर हरे हर सुमिरत जन बहु निस्तरे ।।
हरि के नाम कबीर उजागर, जन्म जन्म के काटे कागर।।
जन रामदास राम संग राता, गुरु प्रसाद नरक नहिं जाता ।।
गोबिंद गोबिंद संग नामदेव मन लीला,
आठ दाम को छीपरो होयो लाखीना ।।
बुनना तनना तग के प्रीती चरण कबीरा,
नीच कुल जोलाहरा भयो गुणी गहीरा ।।
सैन नाई बुतकरिया ओ घर घर सुनिया,
हिरदे वस्या पारब्रह्म भक्तन में गिनिया ।।
रामदास अधमते वाल्मीकि तिन त्यागी माया,
परघट होय साध संग हरि दर्शन पाया ।।
यह विधि सुन के जाट रो उठ भक्ति लागा,
मिले प्रतक्ष गुसाइयां धन्ना बड भागा ।।
(राग रत्नाकर, खेमराज श्रीकृष्णदास, पृष्ठ 152)
धनाजी की साखियां
धनां कहै हरि धरम बिन, पंडित रहे अजांण।
अण बाह्यो ही नीपजै बुझी जाइ किसांग || ۱1۱۱
धनां धन नहीं राचिये, न राचिये संसार।
पग बेड़ी गळ रासड़ी, यूं ही गये असार ।।2।।
धनो कहै ते धिग नरा, धन देख्यां गरबाहि।
धंन तरवर का पांनड़ा, लागे अरु उडि जाहि।।३।।
धनौ कहे धन बांटियै, ज्यूं कूवा का नीर।
खाटी सापुरिसां तणी, सब काहू का सीर ।।4।।
धनां धनि ते संत जन, जे पेठे परभीड़।
संधि कटावै आपनी, रत्ती न आवै पीड़ ।। 511
धनां धंनि ते मानवी, धरणीधर सूं प्रीति।
राति दिवस बिसरै नहीं, रसनां उर मन चीति ।। 6 ।।
धरनीधर व्यापक सबै, धरनि ब्यौम पाताल।
धनौ कहै धनि साघ ते, बिसरे नहीं कहुं काल ।। 711